Thursday, July 30, 2009

"कौरव सभा" के बहाने .....


मुझे नफरत है गोष्ठियों से। क्योंकि दार्शनिक या आलोचक जो सत्य का ठेकेदार बना फिरता है प्लेटो से लेके आज तक वह जो भी बनता है, जिसमे निरंकुशता छिपी होती है. जरा रुक रुक कर ,शब्दों को चबा चबा कर जब कोई आलोचक बोल रहा होता है तो अपने बौधिक प्रदर्शन (आतंक) का असफल प्रयास करता हुआ बड़ा ही दयनीय सा दीखता है क्योंकि वह मानता है की लेखन दोयम दर्जे की चीज़ है। पश्चिमी दर्शन और बीस साल पहले जहाँ परंपरागत प्रगतिशीलता रुक गयी थी उसी का अनुसरण करते हुए शब्दों में वाक्केन्द्रियता (लोगोसन्तरिस्म ) के यह पैरोकार मान कर चलते हैं कि लेखक जब लिखता है तो वह 'वाक्' कि तात्कालिकता से दूर हो जाता है। लेखन, जीवित विचार कि मृत्यु है। प्लेटो का ऐसा सोचना ग्रीक दर्शन का प्राणतत्व है। लेखन को रूसो संदेह से देखते हैं। नीत्शे तो अपने ही तर्कों कि कैद में छटपटाता हुआ दीखता है।अरस्तु कि नजर में भी बोले गए शब्द प्राथमिक हैं। इन्ही सब की पढाई का खतना और मुंडन कर हमारे यहाँ विश्वविद्यालयों में आलोचकों की पौध तैयार की जाती है। जिनके जहन में यह धारणा हमेशा घर किए रहती है की आलोचना कर्म रचना का गुलाम है, पिछलग्गू है.

नामवर सिंह ने 'कहानी, नयी कहानी' में इस पिछडेपन को "सहयोगी प्रयास'' कह कर तोड़ना चाहा था और बराबरी चाही थी लेकिन चूँकि उनके तमाम औजार उसी आलोचना से आते थे जिसके मूल में अरस्तु थे इसलिए उनकी बात आई गयी हो गयी। जहाँ तक मार्क्सवादी समीक्षा का सवाल है तो मार्क्सवाद भी भाषा की लाक्ष्निकता से परे या मुक्त नहीं है। मार्क्स और लेनिन की 'टेक्स्ट' की पूर्व मान्य धारणाओं से सिर्फ़ ऐसी सरल व्याख्या नहीं की जा सकती जिससे टेक्स्ट के भीतर के पूर्वनिश्चित "व्यंग्य"(सिग्निफाइड) को व्याख्यायित किया जा सके।

बरसों पहले जब 'जन
संस्कृति मंच' का गठन हुआ और मुझे राष्ट्रीय सचिव चुन लिया गयानतीजतन मुझे बहुत सी गोष्ठियों, सेमीनार और कांफ्रेंस आदि में जाना पड़ता था।गोरख पांडे की मृत्यु के बाद, बरसों लम्बी यायावरी कि वजह से इन पूर्वायोजित अझेल गतिविधियों से दूर रहा। पिछले दिनों लुधियाना में आयोजित एक गोष्ठी में मित्रों के आग्रह पर जाना हुआ। विषय था - 'हिन्दी उपन्यासों में लोकतंत्र और मित्तर सेन मीत के उपन्यास'

मैनेजर
पांडेय रहे हैं सुनकर अच्छा लगा था लेकिन ज्यादा उत्सुकता तो 'शहर मैं कर्फ्यू' वाले विभूति नारायण राय के भाई विकास नारायण राय को सुनने की थी कि वे क्या कहते हैं। प्रशासनिक सेवा में लगे हुए मित्रों को सुनना और उनका पूरी इमानदारी से अपनी सीमा रेखा के भीतर रहते हुए सार्थक परिवर्तन के लिए वैकल्पिक चोर- गलियों को चुनना अच्छा लगता है. जानकर अच्छा लगा की वे भाई मीत
जी के उपन्यासों का इस्तेमाल हरियाणा पुलिस अकादेमी में पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण (मनोवृति के पुनरूत्थान ) के लिए कर रहे हैं। देखा जाए तो ऐसा होना एक एतिहासिक घटना है, जिसने सार्थक साहित्य को पुनर्परिभाषित ही नही किया बल्कि इस पतनशील समाज में साहित्य की उपयोगिता को एक नया आयाम दिया है। बात मीत जी के सभी उपन्यासों छूकर कौरव सभा पर ही लौटती रही।

कम साहित्यिक कृतियाँ होती हैं जो आपको बाँध कर बिठा दें. पिछले एक दशक में जिन दो उपन्यासों ने मुझे ख़ासतौर पर बाँध कर बिठाया है उनमे से एक मित्तर सेन मीत का उपन्यास 'कौरव सभा' है। भारतीय साहित्य में सत्ता वर्ग के द्वारा आम जन जीवन पर चौतरफा नियंत्रण जैसे विषय पर लिखी गयी ऐसी वृत्ताचित्रधर्मी साहित्यिक कृति और कोई दिखायी नही देती।

अस्सी के दशक में जब ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोयेका की लहर जोरों पर थी तो उन दिनों सोवियत साहित्य में भी इस तरह की वृत्तचित्रधर्मी अथवा वृत्तचित्र- गंधी गध की नयी विधा और धारा विकसित हुयी थी, जो जीवन के सजीव तथ्यों का यथातथ्य विवरण प्रस्तुत करती थी और लोगों द्वारा बेहद सराही गयी थी। इस धारा के लेखकों की लोकप्रियता और शक्ति का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं की साईबेरिया की उत्तरवाहिनी नदियों की धारा को मोड़ कर दक्शिनोमुख करने की जो योजना शुरू हो चुकी थी वह लेखकों के हस्तक्षेप पर रद्द कर दी गयी थी। शुद्ध तथ्यों पर आधारित समय के सच को और अधिक इमानदारी से प्रस्तुत करती इस विधा में लिखी गयी भारतीय साहित्य मैं यह पहली कृति है, कहना ग़लत नहीं होगा।


स्पष्ट रूप से कहा जाय तो महाभारत जहाँ कौरवों कि दुष्टता की पराजय गाथा है वहीं 'कौरव सभा' उनकी विजय गाथा को प्रस्तुत करती है। इस विजय गाथा को आम आदमी सहजता से स्वीकार नहीं करता क्योंकि युगों-युगों से 'सत्यमेव जयते' का जो धीमा ज़हर उसकी रगों में दौड़ रहा है उसने इस यथार्थ का सामना करने की शक्ति उससे छीन ली है। 'अंत भला तो सब भला' की आदत ऐसे ही जायेगी भला? 'कौरव सभा' का अंत एक बार तो उद्वेलित करता ही है। नव जागरण और चिंतन के लिए यह आवश्यक भी है।


गोष्ठी में लगभग सभी वक्ताओं का यह मानना था कि मुख्य रूप से न्याय व्यवस्था और स्वास्थ्य प्रबंध में फैले भ्रस्टाचार का इस उपन्यास में अद्वितीय सूक्ष्म वर्णन है यह उपन्यास हमें सोचने पर मजबूर करता है कि गुलामी के दिनों में अंग्रेजों के बनाये दमनकारी कानून को आज आज़ादी के बासठ वर्षों के बाद भी इस देश कि सवा सौ करोड़ जनता किस आधार पर स्वीकार करती है? या तो यह आज़ादी झूठी है या फ़िर यह सरकारें अंग्रेजों की प्रतिनिधि हैं। यह उपन्यास व्यवस्था के विरोध में सिर्फ़ आक्रोश ही पैदा नहीं करता परिवर्तन के सभी सम्भव प्रयासों के बारे में पुनर्चिन्तन करने को प्रेरित करता है।

सबने अपनी अपनी बात अपने अपने ढंग से कही. मगर देखा जाए तो कुल जमा निचोड़ यही निकलता था कि यह उपन्यास उन सामाजिक हिस्सों का चित्रण भी बखूबी से करता है जिनके खून में गुलामी रच बस गयी है और जो इस स्टेट मशीनरी के छोटे मगर बड़े महत्वपूर्ण अंग हैं।सबने यह बात दुहराई कि 'कौरव सभा' में मीत ने इस सच्चाई को लोगों के सामने परत दर परत उघाड़ कर रखा है कि लोगों के दमन के लिए ब्यूरोक्रेसी, न्याय प्रणाली का इस्तेमाल किस तरह से करती है।

भाई मैनेजर पाण्डेय ने 'कौरव सभा' नहीं पढ़ा था। इसलिए उन्होंने सुधार घर, कटघरा और तफ्तीश पर ही अपने विचार रखे। पर मेरा ख्याल है कि उन्होंने अगर कौरव सभा पढ़ा भी होता तो भी वे यही बोलते जो बिना पढ़े बोला। हम मार्क्सवादियों की सबसे बड़ी समस्या यही है की हम बुद्धिहंता- बुद्धिजीवियों के बीच बैठे हों या किसान-मजदूरों की बैठक में, हम यही फर्क नही कर पाते की हमें कौन से शब्द इस्तेमाल करने हैं कौन से नहीं। कितने मजदूर-किसान, आम जन साधारण के लिए उपनिवेशवाद,साम्राज्यवाद, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, उत्तर आधुनिकता, विखंडन जैसे शब्द समझ के दायरे में आते हैं, हम तो यही नही जान पाए। समस्या तथाकथित बुद्धिजीवियों की भी इससे दूर नहीं है। इन जन सभाओं और गोष्ठियों में जाकर महसूसता हूँ कि 'बहुत कठिन है डगर पनघट की'। इसलिए जहाँ एक तरफ़ तरसता हूँ अपनों के सानिध्य को वहीं दूसरी तरफ़ कहता हूँ कि मुझे नफरत है गोष्ठियों से।

खैर, यह बात तो सच है कि उपन्यास के सभी छोटे बड़े चरित्रों के अच्छे-बुरे मनोभावों को एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भाई मीत ने जिस सहजता से सजाया है वह दृश्यों को अद्भुत रूप से विश्वसनीय बनाता है। लेखक ने अपने सजीव चरित्र-चित्रण से पूरी तरह से यह स्थापित कर दिया है कि 'लोकतंत्र ' करोडों लोगों की आँखों में झोंकी गयी भ्रम की धूल है।


आँखों
देखे और भोगे हुए यथार्थ पर जो साहित्य सोचने पर मजबूर करता है, वही सार्थक साहित्य है
यह कहना कोई अतिशयोक्ति होगी कि तथ्यात्मक कथा-वस्तु और यथार्थपरक शैली की वजह से भारतीय साहित्य में यह उपन्यास एक मीलपत्थर है। मेरी सदिच्छा है की अगर मैं बना पाया तो कोई कोई इस वृतचित्र -गंधी उपन्यास पर फ़िल्म ज़रूर बनाये, इसकी आत्मा से बलात्कार किए बिना।

-देवेन्द्र पाल

Thursday, June 4, 2009

ऑपरेशन ब्लू स्टार रजत जयंती

किसी दुखदायी घटना को याद करने का मतलब यह नहीं होता कि सूखे हुए ज़ख्मों को ताज़ा किया जाए या गडे मुर्दे उखाडे जायें, लेकिन सयाने कहते हैं की अगर आप अपने गुजरे हुए वक्त पर पिस्तौल से गोली चलाओगे तो आने वाला वक्त आपको तोपों से उडाएगा। आने वाली पीढियों को अपने अतीत के बारे में पूरी जानकारी रहे इसलिए भी मौका पड़ते ही हमें नज़रसानी से कोताही नहीं बरतनी चाहिए।

ब्लू स्टार ऑपरेशन का ज़िक्र आते ही जो दो नाम जेहन में फौरी तौर पे आते हैं, उनमें से एक नाम है इंदिरा गाँधी और दूसरा नाम है जरनैल सिंह भिंडरावाला इन दोनों का ज़िक्र आते ही मुझे अपने स्वर्गीय बड़े भाई साहब की याद आती है जो कहा करते थे ' पापी कभी अकेला नही मरता, कईयों को साथ लेकर मरता है' इन दोनों की बात छोडिये, इतिहास गवाही देता है रावण, दुर्योधन से लेकर हिटलर, मुसोलिनी तक जितने भी पा
पी मरे हैं, अकेले नहीं कमबख्त कईयों को साथ लेकर मरे।

पिछली सदी के महानायक के लिए एक पत्रिका 'इंडिया टुडे' ने पिछले दिनों एक जनमत सर्वेक्षण किया था और सभी ने एक मत से जिस
क्सियत को महानायक चुना था, वह थे - शहीद भगत सिंह मेरे ख्याल से एक जनमत संग्रह और करवाया जाए, सदी के खलनायक के लिए, तो शत - प्रतिशत लोग खलनायक के लिए एक ही नाम चुनेंगे और वह नाम होगा- जरनैल सिंह भिंडरावाला हजारों लोगों का हत्यारा जरनैल, जो पंजाबी था, शक्ल सूरत से सिख भी था, जिसे आज भी कई सिरफिरे शहीद और संत कहते हैं। जिसने पंजाब, पंजाबियों और पंजाबियत को जो नुक्सान पहुँचाया है वह शायद ही किसी विदेशी हमलावर ने भी पहुँचाया हो।

सत्तर के दशक के आखरी दिनों में इमर्जेंसी के बाद जनता सरकार आयी थी पंजाब में बादल सरकार थी, जब भिंडरावाला और निरंकारियों के बीच मारकाट शुरू हुई। तब कोई नहीं जनता था की तीसेक साल का यह मरियल सा लौंडा आने वाले वक्तों में अस्सी करोड़ की आबादी वाले अपने ही मुल्क की एकता और अखंडता के लिए इतनी बड़ी चुनौती बन जाएगा।

सन 1947 में पंजाब के मोगा जिले के रोडे गाँव में एक गरीब किसान जोगिन्दर सिंह के घर एक बेटे ने जन्मलिया। मेहनत मजूरी करके गुजरा करने वाले किसान ने बच्चों की फौज खड़ी होते देख बेटे का नाम रख दिया -जरनैल सिंह. बाद में जोगिन्दर सिंह ने जरनैल को
भिंडर गाँव में स्थित एक धार्मिक संस्था दमदमी टकसाल के बाबा गुरबचन सिंह खालसा को सौंप दिया। सिर्फ़ तीस साल की उम्र में जरनैल इसी संस्था का प्रधान बन गया और संत जरनैल सिंह खालसा भिंडरवाला कहलाने लगा उसके बाद उसने धर्म प्रचार का काम शुरू किया।
सिखों के इतिहास में वह पहला संत था जो स्वयं 12 राउंड वाला वेम्बले स्कॉट पॉइंट 38 बोर का रिवाल्वर लेकर घूमता था और सिखों को भी आग्नेयास्त्रों को रखने और शस्त्रधारी बनने के लिए प्रेरित करता था। पंजाब में वैसे भी लोग हथियारों का खासा शौक रखते हैं इसलिए जल्द ही लोगों की जुबान पर बाबा का नाम छाने लगा।

आजकल फसल काटने के लिए जिस तरह हार्वेस्टर कमबाइन का इस्तेमाल होता है वैसे ही वोटों की फसल काटनेके लिए इन बाबाओं और डेरों ,संस्थाओं का इस्तेमाल हमेशा से ही होता रहा है.
प्रसिद्धी की पहली पायेदान पर ही सियासतदान इन्हें कील कर पिटारी में डाल लेते हैं। इमर्जेंसी के बाद जनता राज के दौरान भिंडरावाले पर ज्ञानी जैल सिंह की नज़र पड़ी। ज्ञानी जैल सिंह जानते थे कि गुरुद्वारों कि गोलक और जत्थेदार ही अकाली दल के जनाधार कि वजह हैं और इस वजह को झटक लेने के लिए सबसे शक्तिशाली मोहरे के रूप में उन्होंने 'जरनैल' को चुना।

इधर जरनैल को भी निरंकारियों के साथ हुयी झड़प में मारे गए अपने साथियों का हिसाब चुकता करने के लिए एकसियासी सरपरस्त की जरूरत थी। बस बात चल निकली और और दोनों एक दूसरे का इस्तेमाल करने लगे २४अप्रैल १९८० को निरंकारी बाबा गुरबचन सिंह की हत्या के साथ ही देश की एकता और अखंडता को दाव पर लगादिया गया।

अकाली नेता उसे अपने लिए चुनौती मान रहे थे इसलिए बादल ने शुरूआती दौर में उसे कांग्रेस का एजेंट घोषितकर दिया जरनैल भी बादल की सिख्खी का मखौल उडाने लगा। साथ के साथ वह हिन्दुओं के ख़िलाफ़ भी जहर घोलने लगा, जिन्हें वह टोपीवाले या धोतियाँ वाले कह कर बुलाता था। आर्यसमाजियों को 'महाशे' और निरंकारियोंको 'नरक्धारी' बताता था। धीरे धीरे उसका जनाधार बढ़ने लगा मगर पंजाब केसरी के संपादक और हिंद समाचार समूह के प्रमुख लाला जगत नारायण की हत्या के बाद इन स्तिथियों के एक नया मोड़ ले लिया।

जिस दरबार साहिब में आग्नेयास्त्र लेकर जाने की पाबन्दी है वहां जरनैल सरेआम हथियार लेकर जाने ही नही लगा उसने अपने सभी हत्यारे साथियों के लिए हथियार दरबार साहिब के अंदर इक्कठा करने शुरू कर दिए।
दरबार साहिब जैसी पवित्र जगह को निर्दोष लोगों के हत्यारों के छुपने और अय्याशी करने का अड्डा बना दिया अकाल तख्त का दुरूपयोग होने लगा. धडाधड हुक्मनामे जारी होने लगे। सब अपने अपने दडबों में दुबक गए। अकालियों सहित किसी भी सिख ने इसे गुरु घर की बेअदबी मानते हुए इसका विरोध नही किया बल्कि बादल और अन्य ज्यादातर नेताओं ने अपने बाल बच्चों सहित परिवारों को विदेश भेज दिया।

1982 में धर्मयुध्ध मोर्चा में 30 हजार से ज्यादा किसानों की गिरफ्तारी बेकार चली गयी। आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का समर्थन करके भिंडरावाला, संत लोंगोवाल जैसे नेताओं को अपने करीब ले आया था और बड़ी तेजी से अपने समर्थकों में इजाफा करता जा रहा था। अकाली दल की सभाओं में हत्याओं के हुक्मनामे और हत्यारों को संरक्षण देने की बातें करने लगा। (सुने उसकी अपनी आवाज़ में यह बातें)

अब तक भिंडरावाले को परिस्तिथियाँ ऐसी जगह पर घेर ले गयी थी जहाँ से उसका वापिस लौटना नामुमकिन था।कांग्रेस के पास अपनी पार्टी के हित में उसे मार डालने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। हाँ ऑपरेशन ब्लू स्टार टाला जा सकता था। लेकिन उस हालत में भिंडरावाले को जिन्दा पकड़ा होता तो वह कब का जेल से रिहा होकर खालसा राज की स्थापना के लिए फ़िर एक बार युध्ध छेड़ चुका होता। बहरहाल ब्लू स्टार ऑपरेशन में एक मुर्ख ' जरनैल' मारा गया

सबसे बड़े दुःख की बात यह है कि इतना बड़ा संताप जिस देश ने भोगा हो उसने भिंडरावाले कि मौत से ही सब्र करलिया ऑर इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि
आदमी मरता है, विचार कभी नहीं मरता किसी ने जरूरत और जिम्मेवारी नही समझी कि उसे मृत घोषित करके उसके भक्तों को उसके नाम का खुला इस्तेमाल करने कि आजादी पर रोक के उपायों पर गौर किया जाए। उसकी तस्वीरों वाली टीशर्ट ऑर कारों के स्टिक्कर, भाषणों के कैसेट धड़ल्ले से बिक रहे हैं. आज भी गुरुद्वारों में उसके नाम के शहीदी समागम मनाये जा रहे हैं और सब सत्ताधारी चुपहैं। बुध्धिजिविओं के कानों जूं नहीं रेंग रही। पक्ष-प्रतिपक्ष के खेमों में बँटा मीडिया गिरावट की वह सभी हदें पार् कर चुका है कि 'खुल्ला खेल फर्रुखाबादी' जैसी कहावतें उनके लिए इस्तेमाल करना बड़ा बेमानी सा लगता है . कोई भी गाली बड़ी पिद्दू सी नज़र आतीं हैं।